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नि वे॑वेति पलि॒तो दू॒त आ॑स्व॒न्तर्म॒हांश्च॑रति रोच॒नेन॑। वपूं॑षि॒ बिभ्र॑द॒भि नो॒ वि च॑ष्टे म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ni veveti palito dūta āsv antar mahām̐ś carati rocanena | vapūṁṣi bibhrad abhi no vi caṣṭe mahad devānām asuratvam ekam ||

पद पाठ

नि। वे॒वे॒ति॒। प॒लि॒तः। दू॒तः। आ॒सु॒। अ॒न्तः। म॒हान्। च॒र॒ति॒। रो॒च॒नेन॑। वपूं॑षि। बिभ्र॑त्। अ॒भि। नः॒। वि। च॒ष्टे॒। म॒हत्। दे॒वाना॑म्। अ॒सु॒र॒ऽत्वम्। एक॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:55» मन्त्र:9 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:29» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

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पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (आसु) इन प्रजाओं में (अन्तः) भीतर (नि, वेवेति) अत्यन्त व्याप्त है (पलितः) श्वेत केशों से युक्त (दूतः) समाचार देनेवाले के सदृश (महान्) व्याप्त हुआ (रोचनेन) अपने प्रकाश से (चरति) प्राप्त है (वपूंषि) रूपों को (बिभ्रत्) धारण करता हुआ (नः) हम लोगों को (अभि) सन्मुख (वि, चष्टे) विशेष करके उपदेश देता है वही (देवानाम्) विद्वान् हम लोगों का (एकम्) द्वितीय से रहित (असुरत्वम्) दोषों का फेंकना (महत्) बड़ा पूज्य है, आप लोग भी इसकी पूजा करो ॥९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो जगदीश्वर योगियों को वायु के द्वारा वृद्ध दूत के सदृश दूर देश में वर्त्तमान समाचार वा पदार्थ को जनाता है और अन्तर्यामी हुआ अपने प्रकाश से सबको प्रकाशित और जीवों के कर्मों को जानकर फलों को देता है, अन्तःकरण में वर्त्तमान हुआ न्याय्य और अन्याय्य करने और न करने को चिताता है, वही हम लोगों को अतिशय पूजा करने योग्य ब्रह्म वस्तु है, आप लोग भी ऐसा जानो ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

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अन्वय:

हे मनुष्या य आस्वन्तर्नि वेवेति पलितो दूत इव महान् रोचनेन चरति वपूंषि बिभ्रन्नोऽस्मानभि विचष्टे तदेव देवानामस्माकमेकमसुरत्वं महत्पूज्यमस्तीति यूयमप्येतं पूजयत ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नि) (वेवेति) भृशं व्याप्नोति। अत्र वाच्छन्दसीतीडभावः। (पलितः) श्वेतकेशः (दूतः) समाचारदातेव (आसु) प्रजासु (अन्तः) आभ्यन्तरे (महान्) व्याप्तः सन् (चरति) प्राप्तोऽस्ति (रोचनेन) स्वप्रकाशेन (वपूंषि) रूपाणि (बिभ्रत्) धरत् सन् (अभि) आभिमुख्ये (नः) अस्मान् (वि) (चष्टे) विशेषेणोपदिशति (महत्) (देवानाम्) विदुषामस्माकम् (असुरत्वम्) दोषाणां प्रक्षेप्तृत्वम् (एकम्) अद्वितीयम् ॥९॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यो जगदीश्वरो योगिनो वायुद्वारा वृद्धो दूत इव दूरस्थं समाचारं पदार्थं वा ज्ञापयति, अन्तर्यामी सन्त्स्वप्रकाशेन सर्वं प्रकाश्य जीवानां कर्माणि विदित्वा फलानि प्रयच्छति, आत्मस्थस्सन्न्याय्यमन्न्याय्यं कर्त्तुमकर्त्तुं चेतयति, तदेवास्माकं पूज्यतमं ब्रह्म वस्त्वस्तीति भवन्तोऽप्येवं विजानन्तु ॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जो जगदीश्वर, योग्यांना वायूद्वारे व निपुणकुशल दूताप्रमाणे दूर देशातील वार्ता किंवा पदार्थांचे ज्ञान करवून देतो तो अंतर्यामी असून आपल्या प्रकाशाने सर्वांना प्रकाशित करतो. जीवाचे कर्म जाणून फळ देतो. अंतःकरणात राहून न्याय-अन्यायाचा बोध करवितो. तोच ब्रह्म सर्वांनी पूजा करण्यायोग्य आहे, हे तुम्ही जाणा. ॥ ९ ॥